आज अपनी बेबसी और लचारी पर आँसू बहाती है माँ एक बेचारी
क्योंकि बेटी पर जुल्म कर बच निकला है एक अत्याचारी
न दौलत के न सौहरत के बस एक
मर्द होने के नशे में था चूर वह बलात्कारी
कहाँ पैदा होते हैं यह वहशी एक माँ ही
सुलझा सकती है यह गूढ़ पहेली
क्योंकि तूने ही रची है पृष्ठ भूमी अंजाने ही यह सारी
तूने ही तो मासूम बचपन को कराई मर्द या औरत बनने की तैयारी
कर्तव्य, त्याग, समर्पण, लज्जा, क्षमा और सेवा
केवल बेटी के लिये ही पढ़ाई है यह सारी
दंभ, अभिमान, अतिकृमण, का जन्मसिद्ध अधिकार लिये बेटे बने स्वेछाचारी
अरे ! अगर नैतिकता, पवित्रता और सदगुणों का नाम ही है नारी
तो माँ तु बचपन से ही पैदा कर हर नर में एक नारी
फ़िर माँ तु ही बता जिस देश के मर्दों के अंदर जीवित होगी एक नारी
तो फ़िर कैसे भला वहाँ पैदा हो सकेगें ये बलात्कारी ?
Tuesday, February 13, 2007
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2 comments:
यह एक कड़ा प्रहार है इस समाज के उपर जो आपकी कविता फुफकार-फुफकार कर कह रही है…।
बहुत कटाक्ष है इसमें सहना कठिन है पर जो गलत है सो है…और इसे दूर भी करना होगा…धन्यवाद!
कर्तव्य, त्याग, समर्पण, लज्जा, क्षमा और सेवा
केवल बेटी के लिये ही पढ़ाई है यह सारी
सही ही तो लिखा है कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को ही ये गुण सीखा पाती है।
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