Thursday, January 11, 2007

चलें-संग-संग....

नव पल्लव, कोमल कोंपल बन
हर्षित किये थे हमने घर आँगन
समय के साथ सशक्त सक्षम हो
महकते थे मधुवन-मधुबन
गर्वित हो यौवन पर
निर्मित किये कई उपवन
एक था दौर अभिलाषाओं का
पूर्ति को आतुर थे तन-मन
किंतु समय की गति
रूकती नहीं किसी के संग
हम भी बदले ढला यौवन
सूखी पत्ती सा बन, ढला जीवन का चटक रंग
सूखी पत्तियों ने नव पल्लवों को जगह दे,
छोड़ा वृक्ष का संग
मगर कुछ अब भी है ऎसा
जो कर सकें समाज को अर्पण
सूखी पत्तियाँ संस्कृति की खाद बन
भर दें नव अकुंरों में प्राकृतिक सदगुणों के रंग

और करें ऎसा प्रयास हम सभी की,
जीवन की भोर और सांझ चले-संग-संग