यूँ ही कभी रेत पर,
कुछ अटपटे से निशान बनाना
और उनमें किसी अपने के निशान ढूढना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी कागज पर
टेड़ी-मेड़ी लकीरें खींचना
और उनमें किसी अपने के चेहरे को पहचानना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी लहरों पर
साँझ ढले बेमानी घूमना
और लहरों के आँचल में सूरज को छिपते देखना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी आकाश पर
बादलों को अपनी कल्पना में ढालना
और कुछ अपनी ही तरह से अर्थ किसी को समझाना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी फ़ूलों की खुशबू पर
किसी की ताजा साँसों की महक पाना
और खुद खिल जाना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी अंधेरे में
नन्हें से दीप को टिमटिमाते जगमगाते देखना
और किसी की जिजीविषा को सराहना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी लोगों की भीड़ में
किसी को दूसरों के मददगार के रूप में देखना
और एक सच्चा इंसान पाना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी मन के भावों का
शब्दों की शक्ल लेना
और कविता में ढलते जाना
अच्छा लगता है
Sunday, June 17, 2007
तुम्हें अर्पण...
नहीं किया है मैंने समर्पण
ये जीवन तो है तुम्हें अर्पण
क्योंकि मन है विश्वास प्रति क्षण
कि पृथ्वी आकाश और जल
हर जगह थाम ही लोगे तुम मेरा आँचल
गर लहरों पर अठखेलियाँ
करती मैं नौका बन
तेज लहरों के उतार-चढ़ाव
पर फ़िसलती जाऊँ गहरे प्रपात की ओर
तो तुम संभाल ही लोगे मुझे
मेरा मांझी बन
गर बन पागल हवा
छोड़ कर अपनी दिशा
मद-मस्त हो नभ में
बहती फ़िरूँ मदहोशी में
तो तुम बन पर्वत
बदल कर सही कर ही दोगे मेरी दिशा
गर तेज चलने की जिद में
दौड़ती ही जाऊँ जीवन पथ में
और समझ से परे हों
सभी दिशा-निर्देश
तो तुम बनकर मेरे मार्गदर्शक
ले ही चलोगे मुझे सही राह पर
ये जीवन तो है तुम्हें अर्पण
क्योंकि मन है विश्वास प्रति क्षण
कि पृथ्वी आकाश और जल
हर जगह थाम ही लोगे तुम मेरा आँचल
गर लहरों पर अठखेलियाँ
करती मैं नौका बन
तेज लहरों के उतार-चढ़ाव
पर फ़िसलती जाऊँ गहरे प्रपात की ओर
तो तुम संभाल ही लोगे मुझे
मेरा मांझी बन
गर बन पागल हवा
छोड़ कर अपनी दिशा
मद-मस्त हो नभ में
बहती फ़िरूँ मदहोशी में
तो तुम बन पर्वत
बदल कर सही कर ही दोगे मेरी दिशा
गर तेज चलने की जिद में
दौड़ती ही जाऊँ जीवन पथ में
और समझ से परे हों
सभी दिशा-निर्देश
तो तुम बनकर मेरे मार्गदर्शक
ले ही चलोगे मुझे सही राह पर
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