Thursday, January 11, 2007

चलें-संग-संग....

नव पल्लव, कोमल कोंपल बन
हर्षित किये थे हमने घर आँगन
समय के साथ सशक्त सक्षम हो
महकते थे मधुवन-मधुबन
गर्वित हो यौवन पर
निर्मित किये कई उपवन
एक था दौर अभिलाषाओं का
पूर्ति को आतुर थे तन-मन
किंतु समय की गति
रूकती नहीं किसी के संग
हम भी बदले ढला यौवन
सूखी पत्ती सा बन, ढला जीवन का चटक रंग
सूखी पत्तियों ने नव पल्लवों को जगह दे,
छोड़ा वृक्ष का संग
मगर कुछ अब भी है ऎसा
जो कर सकें समाज को अर्पण
सूखी पत्तियाँ संस्कृति की खाद बन
भर दें नव अकुंरों में प्राकृतिक सदगुणों के रंग

और करें ऎसा प्रयास हम सभी की,
जीवन की भोर और सांझ चले-संग-संग

7 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

सूखी पत्तियाँ संस्कृति की खाद बन
भर दें नव अकुंरों में प्राकृतिक सदगुणों के रंग
और करें ऎसा प्रयास हम सभी की,
जीवन की भोर और सांझ चले-संग-संग

अच्‍छी कविता है, खा़स कर ये पक्तिंयॉं। बधाई

Divine India said...

बात तो बहुत सारगर्भीत है...रचना में अच्छा
संदेश दिया गया है...आरंभन् है इस प्रयास में...

Prabhakar Pandey said...

बहुत ही अच्छी रचना ।

अनूप भार्गव said...

हिन्दी ब्लौग जगत में इस सुन्दर कविता के साथ स्वागत है ।

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाकारों के परिवार में आपका स्वागत है. निरंतर लिखते रहें, शुभकामनायें.

shubhra gupta said...

आप सभी की टिप्पणी और प्रोत्साहन का हार्दिक
धन्यवाद !!

शुभ्रा गुप्ता

हरिराम said...

"जीवन की भोर और साँझ" दोनों संग संग चलें, पर कैसे सम्भव है? अद्भुत सोच है, अद्भुत अभिव्यक्ति...