यूँ ही कभी रेत पर,
कुछ अटपटे से निशान बनाना
और उनमें किसी अपने के निशान ढूढना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी कागज पर
टेड़ी-मेड़ी लकीरें खींचना
और उनमें किसी अपने के चेहरे को पहचानना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी लहरों पर
साँझ ढले बेमानी घूमना
और लहरों के आँचल में सूरज को छिपते देखना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी आकाश पर
बादलों को अपनी कल्पना में ढालना
और कुछ अपनी ही तरह से अर्थ किसी को समझाना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी फ़ूलों की खुशबू पर
किसी की ताजा साँसों की महक पाना
और खुद खिल जाना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी अंधेरे में
नन्हें से दीप को टिमटिमाते जगमगाते देखना
और किसी की जिजीविषा को सराहना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी लोगों की भीड़ में
किसी को दूसरों के मददगार के रूप में देखना
और एक सच्चा इंसान पाना
अच्छा लगता है
यूँ ही कभी मन के भावों का
शब्दों की शक्ल लेना
और कविता में ढलते जाना
अच्छा लगता है
Sunday, June 17, 2007
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2 comments:
"यूँ ही.." नहीं जी, बहुत सादगीपूर्ण उपस्थापन, बहुत प्रगल्भित भाव भरे हैं।
शुभ्रा जी..
इतनी सहजता, सुन्दरता और बिना शाब्दिक आडंबरों के गहरी गहरी बात कह जाना सचमुच सराहनीय है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
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