Sunday, June 17, 2007

तुम्हें अर्पण...

नहीं किया है मैंने समर्पण
ये जीवन तो है तुम्हें अर्पण
क्योंकि मन है विश्वास प्रति क्षण
कि पृथ्वी आकाश और जल
हर जगह थाम ही लोगे तुम मेरा आँचल

गर लहरों पर अठखेलियाँ
करती मैं नौका बन
तेज लहरों के उतार-चढ़ाव
पर फ़िसलती जाऊँ गहरे प्रपात की ओर
तो तुम संभाल ही लोगे मुझे
मेरा मांझी बन

गर बन पागल हवा
छोड़ कर अपनी दिशा
मद-मस्त हो नभ में
बहती फ़िरूँ मदहोशी में
तो तुम बन पर्वत
बदल कर सही कर ही दोगे मेरी दिशा

गर तेज चलने की जिद में
दौड़ती ही जाऊँ जीवन पथ में
और समझ से परे हों
सभी दिशा-निर्देश
तो तुम बनकर मेरे मार्गदर्शक
ले ही चलोगे मुझे सही राह पर

1 comment:

हरिराम said...

जीवन के मार्गदर्शक पर ऐसा भरोसा सचमुच निश्चिन्तता और सफलता ला देता है।