Friday, April 13, 2007

एक बुत...

वह जीवन से परिपूर्ण था
मन में विचार थे
बुराई के प्रति उद्वेग था
समाज को सुधारना चाहता था
होठों पर निश्छल-निष्कपट मुस्कान थी
और वाणी में ओज था
प्रेम शान्ति व अपनत्व का प्रवर्तक था
लेकिन लोगों को यह मंजूर ना था
पहले होठों से मुस्कान छीनी
फ़िर मन मस्तिष्क से विचार,
फ़िर भावनाओं को दफ़न कर,
उसे भावशून्य बना दिया गया
अब वह एक शून्य था
विचारों से, भावों से, उद्वेगों से,
क्योंकि अब तो वह सिर्फ़ एक बुत था
फ़िर उसी बुत को लोगों ने बिठाकर पूजा
अब तो वह पूजने ही योग्य था
क्योंकि ना वो बोलता था
और ना किसी को जगाता था
बस मौन होकर सब सहता था
क्योंकि अब वह सिर्फ़ एक बुत था

2 comments:

Manish Kumar said...

सुंदर भाव ! टीसता व्यंग्य...

shubhra gupta said...

मनीष जी और समीर जी आपके उत्साह वर्धन
का धन्यवाद

शुभ्रा