Saturday, January 17, 2015

यह क्या करते आ रहें हैं हम...

समय कम है, कहते रहे अच्छे कामो के लिये हम
और समस्याऒं से पल्ला झाड़ते आये हैं हम
नहीं बर्दाश्त है काँच के बर्तन का टूटना
और अपनो के दिलों को बेदर्दी से तोड़ते आ रहें हैं हम
दावा करते हैं जिनकी दुनियाँ सवाँरने का
आजतक उन्हीं को उजाड़ते आये हैं हम
रिश्तों की कश्ती पर बैठे पार गये और
उसी कश्ती को मझधार मे डुबोते आ रहें हैं हम
कहते हैं आजकल नहीं बनती कोई नई इबारतें
और पुरखों की दी इबारतों को मिटाते आये हैं हम
बाजार मे मिलता है पैसों से सबकुछ
और घर पर ही बाजार सजा लाये हैं हम
पराया दर्द और पराये आँसू कभी नहीं बाँट पाये हम
और आज आँसूऒं के सैलाब को खुद ही न्योता दे आये हैं हम
कहते हैं समाज मे भावुकता, मर्यादा, अपनापन सभी खॊ सा गया है
और भ्रष्टाचार, अराजकता, अलगाव की नीति से जेबें भर लाये हैं हम
ढुंढो कहाँ मिलता है यह हम
थोड़ी ईमानदारी से हाथ तो बढाऒ यारों
आसपास ही पा जाओगे अकेले-अकेले खड़े हैं सारे हम

1 comment:

Unknown said...

अति सुंदर आप दोनो बहुत अछा लिखते है